कल – आज - कल
कल –
एक राह
एक मंजिल
एक धागे से बँधे से हम
और हमारे बीच से उठता सा जयघोष
हम एक हैं।
हम एक हैं॥
आज –
इस ओर
मैं
उस पार
तुम
और हमारे बीच
एक अनन्त सा शून्य
लपेटे अपने आप में
घेरे हम सबको
कहता सा है क्यों
मैं, मैं
हूँ।
तुम, तुम॥
और कल –
क्या फिर बाँहों में बाँहें डाल
हम कह सकेंगे फिर एक बार
हम एक हैं!
या मेरा ही अक्स
आईने से निकल
एक प्रश्नवाचक चिह्न बन कर
पूछ रहा होगा मुझसे
कौन हो तुम???
सुरेन्द्र
कुमार ‘सत्यपथिक’
फरवरी, १९८३